श्रीमद्भागवत महापुराण श्रवण कल्पवृक्ष से श्रेष्ठ, भक्ति और मुक्ति भी प्रदान करता है : आचार्य रणधीर ओझा




न्यूज़ विज़न। बक्सर
जिले के राजपुर प्रखंड अंतर्गत सगरांव ग्राम में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा महापुराण के दूसरे दिन मामा जी की कृपा पात्र आचार्य श्री रणधीर ओझा ने कथा के दौरान कहा कि कलयुग में श्रीमद् भागवत महापुराण श्रवण करना कल्पवृक्ष से भी बढ़कर है। क्योंकि कल्पवृक्ष मात्र तीन वस्तु अर्थ, धर्म और काम ही दे सकता है मुक्ति और भक्ति नहीं दे सकता है। लेकिन श्रीमद्भागवत तो दिव्य कल्पतरु है यह अर्थ, धर्म, काम के साथ-साथ भक्ति और मुक्ति प्रदान करके जीवन को परम पद प्राप्त कराता है। उन्होंने कहां की श्रीमद्भागवत केवल पुस्तक नहीं साक्षात श्री कृष्ण का स्वरूप है। इसके एक एक अक्षर में श्री कृष्ण समाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि कथा सुनना समस्त दान, व्रत, तीर्थ ,पुर्णयादि कर्मों से बढ़कर है ।







आचार्य श्री ने आगे आत्मदेव, ब्राह्मण और धुंधकारी के संबंध में बताते हुए कहा कि यह कथा आत्मदेव कि नहीं हम सभी की कथा है। तुंगभद्र नदी के तट पर रहने वाला वह ब्राह्मण आत्मदेव उसी प्रकार हमारा शरीर भी तो तुंगभद्रा है। तुंग अर्थात श्रेष्ठ और भद्र अर्थात कल्याण जिसके द्वारा उत्तम कल्याण का मार्ग प्रशस्त तुंगभद्रा है। और वह हमारा मानव शरीर है इसी में रहने वाला प्रत्येक जीवात्मा ब्राह्मण आत्मदेव है आत्मदेव रूपी जीवात्मा तो बेचारा भोला है पर यह संसायत्मिका बुद्धि रूपी उसकी पत्नी धुंधली बहुत खतरनाक है।

आचार्य श्री ने आगे कहा कि धुंधकारी जैसे कबाबी, महा पापी प्रेत आत्मा का उद्धार हो जाता है। उन्होंने कहा कि भगवान के चार अक्षर इसका तात्पर्य यह है कि भ से भक्ति, ग से ज्ञान, व से वैराग्य और त से त्याग जो हमारे जीवन में प्रधान करें उसे हम भागवत कहते हैं। इसके साथ साथ भागवत के 6 प्रश्न निष्काम भक्ति 24 अवतार, श्री नारद जी का पूर्व जन्म, परीक्षित जन्म, कुंती देवी के सुख के अवसर में विपत्ति की याचना करती है क्योंकि दुख में ही तो गोविंद का दर्शन होता है। जीवन की अंतिम बेला में दादा भीष्म गोपाल का दर्शन करते हुए अद्भुत दे त्याग का वर्णन किया। साथ-साथ परीक्षित को श्राप कैसे लगाता तथा भगवान श्री सुखदेव उन्हें मुक्ति प्रदान करने के लिए कैसे प्रकट हुए इसका भी वर्णन किया।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अपने माता-पिता को कष्ट देने वाला, शराब पीने वाला, वेश्यागामी आदि पुरुष प्रेतयोनी प्राप्त कर अनंतकाल तक भटकते रहते हैं। अब न हो गोकर्ण की तरह कथा सुनाने वाले हैं और न सुनने वाले। धुंधकारी को उसके पापों की सजा तो मिली ही साथ ही उसने प्रेतयोनी में रहकर भी सजा भुगती। बाद में जब उसे पछतावा हुआ तो भागवत कथा सुनकर मन निर्मल हो गया। निर्मल मन होने से उसके सारे संताप जाते रहे। आचार्य श्री ने आगे कहा कि जब हम सत्संग को अपने व्यवहार मैं नहीं उतारेंगे तब तक यह अज्ञान रूपी धुंधकारी हमें सताता ही रहेगा। अतः हमें इन पात्रों के चरित्र से सीख लेनी चाहिए।

