आचार्य शिवपूजन सहाय की जयंती विशेष : आचार्य जी की रचित पुस्तको को पढ़ने के लिए आज भी तरसते है साहित्य प्रेमी
9 अगस्त 1893 को जिले के इटाढी प्रखंड के उनवास गांव में हुआ था उनका जन्म




न्यूज विजन | बक्सर
जिले के उनवास गांव के रहनेवाले आचार्य शिवपूजन सहाय की ख्याति किसी से छुपी नहीं है। बहुआयामी प्रतिभा के कारण वे साहित्य की दुनिया के शिव के नाम से भी प्रख्यात हुए। साहित्य के पुरोधा उनके प्रतिभा के चलते यह तय नहीं कर पाये कि आचार्य शिवपूजन सहाय एक महान साहित्यकार थे या फिर एक पत्रकार। अपने शब्दों से उन्होंने अपनी रचनाओं में बिहारी अस्मिता को पिरोया उस पर आज की पीढ़ी भी बिहारीपन पर गर्व करती है। समकालीन साहित्कार उन्हें दधिचि कहा करते थे। क्योंकि, दधिचि की तरह ही उन्होंने अपनी हडि्डयां गलाकर साहित्य की सेवा और साहित्यकारों को प्रेरित किया।
आचार्य शिपपूजन सहायक का जन्म बक्सर जिले के इटाढ़ी प्रखंड स्थित उनवास गांव के मध्यम परिवर में 9 अगस्त 1893 में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की। इसके बाद उन्होंने अपने आगे की पढ़ाई आरा में पूरी की। 1921 तक उन्होंने हिंदी भाषा शिक्षक के रूप में अध्यापन का कार्य किया। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका पदार्पण 1923 में हुआ। उस समय बिहार की पहचान को गढ़ने का सिलसिला बाबू राजेंद्र प्रसाद व डॉ सच्चिदानंद सहाय शुरू कर चुके थे। आचार्य सहाय ने तब कोलकाता में मतवाला नामक पत्र में संपादक की हैसियत से कार्य संभाला। 1 साल बाद ही वे लखनऊ चले गये, जहां पत्रिका माधुरी का संपादन किया। इस दौरान उन्हें महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का सानिध्य मिला और उनकी कई कहानियों को उन्होंने संपादन किया।
पद्म-भूषण अवार्ड से सम्मानित किये गये थे आचार्य शिवपूजन सहाय








वरीय अधिवक्ता सह प्रबुद्ध साहित्यकार रामेश्वर प्रसाद वर्मा ने बताया कि आचार्य सहाय ने बिहारी अस्मिता पर आधारित देहाती दुनिया की रचना उन्होंने की थी। बाद में कुछ दिनों के लिए वाराणसी में उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारिता की। बिहार की गौरवशाली धरती पर उन्होंने पत्रकारिता का आगाज भागलपुर सुल्तानंगज से प्रकाशित गंगा का संपादन कर किया। 1935 में उन्होंने लहरियासराय में आचार्य रामलोचन शर्मा के पुस्तक भंडार से प्रकाशित बालक के प्रकाशन की जिम्मेदारी संभाली। चार साल तक यहां रहने के बाद उन्होंने छपरा के राजेंद्र कालेज में हिंदी के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इस दौरान उनकी पुस्तक विभूति व माता का आंचल ने उन्हें ने साहित्यकारों की जमात की अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया। वर्ष 1946 में नौकरी से एक साल का अवकाश लेकर पटना में पुस्तक भंडार से प्रकाशित साहित्य को समर्पित मासिक पत्रिका हिमालय में बातौर संपादक का दायित्व संभाला। आजादी के बाद 1949 में वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के सचिव बनाये गये। इस पद पर रहते हुए उन्होंने विभिन्न लेखकों के पचास से अधिक साहित्यिक रचनाओं को अपने संपादन में प्रकाशित कराया। इसके बाद वे परिषद के निदेशक बने। 1960 में आचार्य शिवपूजन सहाय पद्म-भूषण अवार्ड से सम्मानित किया गया था। 21 जनवरी 1963 को पटना में उनका निधन हो गया। मरणोपरांत उनकी वे दिन वे लोग, मेरा जीवन व स्मृतिशेष जैसी रचनाएं प्रकाशित हुई।
इंटरनेट व कम्प्यूटर युग में कीताबों से दूर हो रही युवा पीढ़ी
साहित्य के शिव आचार्य शिवपूजन सहायक की रचनाओं को पढ़ने के लिए आज भी साहित्य प्रेमी तरसते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने शब्दों को जिस तरह से पिरोया है, वह आज के परिवेश में भी प्रासंगिक है। जिस साहित्यकार के तेज से साहित्य जगत रौशन हुआ उन्ही की रचना उनकी जन्मस्थली पर ढ़ूढ़े नहीं मिलती। आचार्य शिवपूजन सहाय पर पत्र-पत्रिकाओं में आलेख लिखने वाले साहित्कार रामेश्वर प्रसाद वर्मा कहते हैं कि कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल के युग में युवा पीढ़ी किताबों से दुर होने लगी है। ऐसे में शिव के शहर में देहाती दुनिया की खोज सार्थक सिद्ध नहीं हो पाती।





