RELIGION

देवठन एकादसी पर गंगा स्नान को उमड़ी श्रद्धालुओं की भीड़

क्षीर सागर में चार महीने की निद्रा के बाद कार्तिक मास की एकादशी के दिन जागते हैं भगवान विष्णु    

न्यूज़ विज़न।  बक्सर 

कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की  देवठन  एकादशी को लेकर मंगलवार को नगर के विभिन्न गंगा घाटों पर सनातन धर्मावलंबियों की भीड़ लगी रही। सुबह चार बजे से लेकर दिन के बारह बजे श्रद्धालु गंगा में गोते लगाते रहे। इस एकादशी को देवउठनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। शहर के रामरेखा घाट पर सबसे अधिक भीड़ देखी गई। उसके बाद नाथ घाट, फुआ घाट, सत्ती घाट, सिद्धनाथ घाट समेत अन्य घाटों पर भी स्नानार्थियों का तांता दोपहर तक लगा रहा। इस दौरान शहर के सभी गंगा घाट श्रद्धालुओं से पट गया था। वहीं दूर-दराज से तो लोग एक दिन पूर्व से ही जिला मुख्यालय पहुंच गये थे। कुछेक लोग अपने संबंधियों तो कुछ लोग नगर के किला मैदान, रेलवे स्टेशन समेत अन्य जगहों पर डेरा डालकर रहे। और सुबह होते ही स्नान-दान करने के बाद अपने घरों के तरफ रुख कर गये।

 

देवउठनी एकादशी से ही आरम्भ हो जाते है सारे मांगलिक कार्य 

पंडित मुन्ना दुबे ने बताया कि इस एकादशी को  देवठन एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी नामों से जानते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु क्षीर सागर में चार महीने की निद्रा के बाद कार्तिक मास की एकादशी के दिन जागते हैं। इनके जागने के बाद से सभी तरह के शुभ और मांगलिक कार्य फिर से आरंभ हो जाते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह किया जाता है। इस दिन तुलसी जी का विवाह शालिग्राम से किया जाता है। अगर किसी व्यक्ति को कन्या नहीं है और वह जीवन में कन्या दान का सुख प्राप्त करना चाहता है। तो वह तुलसी विवाह कर प्राप्त कर सकता है। जिनका दाम्पत्य जीवन बहुत अच्छा नहीं है। वह लोग सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए तुलसी विवाह करते हैं। युवा जो प्रेम में हैं लेकिन विवाह नहीं हो पा रहा है।

 

वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को लेकर देवताओं ने कराया था विवाह

तुलसी का पौधा पूर्व जन्म मे एक लड़की थी। जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था। बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी। बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी। जालंधर नाम का एक पराक्रमी असुर था, जिसका विवाह वृंदा नाम की कन्या से हुआ। वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त थी और पतिव्रता थी। इसी कारण जलंधर अजेय हो गया। अपने अजेय होने पर जालंधर को अभिमान हो गया और वह स्वर्ग की कन्याओं को परेशान करने लगा। दुःखी होकर सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गए और जलंधर के आतंक को समाप्त करने की प्रार्थना करने लगे।

 

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