RELIGION
अपनी इंद्रियों को जो दमन कर ले वही सुदामा है आचार्य रणधीर ओझा




न्यूज़ विज़न । बक्सर
जिले के इटाढ़ी प्रखंड अंतर्गत बिझौरा गॉव में दुर्गा पूजा सेवा समिति के तत्वाधान में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा महापुराण के सातवें दिन मामा जी महाराज के कृपापात्र आचार्य श्री रणधीर ओझा ने श्रीकृष्ण भक्त एवं बाल सखा, सुदामा चरित्र, एवं शुकदेव जी द्वारा परीक्षित जी को दी गई उपदेश का वर्णन किया ।
आचार्य श्री ने कहा कि श्री कृष्ण एवं सुदामा की मित्रता समाज के लिए एक मिसाल है। सुदामा के आने की खबर सुनकर श्री कृष्ण व्याकुल होकर दरवाजे की तरफ दौड़ते हैं। “पानी परात को हाथ छूवो नाहीं, नैनन के जल से पग धोए।” श्री कृष्ण अपने बाल सखा सुदामा की आवभगत में इतने विभोर हो गए कि द्वारका के नाथ हाथ जोड़कर और लिपट कर जल भरे नेत्रों से सुदामा का हाल चाल पूछने लगे। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता में कभी धन दौलत आड़े नहीं आती।
आचार्य श्री ने कहा कि ‘स्व दामा यश्य सः सुदामा’। अर्थात अपनी इंद्रियों को जो दमन कर ले वही सुदामा है। सुदामा की मित्रता भगवान के साथ नहीं स्वार्थी उन्होंने कभी उनसे सुख साधन या आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कामना नहीं की लेकिन सुदामा की पत्नी द्वारा पोटली में भेजे गए चावलों ने भगवान श्रीकृष्ण से सारी हकीकत बया कर दी और प्रभु ने बिन मांगे सुदामा को सब कुछ प्रदान कर दिया। भागवत ज्ञान यज्ञ सातवें दिन कथा में सुदामा चरित्र का वाचन हुआ तो मौजूद श्रद्धालुओं के भाव विभोर हो गए। आचार्य श्री ने कहा कि श्री कृष्ण भक्त वत्सल है सभी के दिलों में विहार करते हैं जरूरत है तो सिर्फ शुद्ध हृदय से उन्हें पहचानने की।
आचार्य श्री ने आगे शुकदेव परीक्षित की कथा सुनाते हुए कहा कि शुकदेव जी ने परीक्षित को अंतिम उपदेश देते हुए कहा कि कलयुग में कोई दोष होने पर भी एक लाभ है। इस युग में जो भी कृष्ण का कीर्तन करेगा उसके घर कली कभी नहीं प्रवेश करेगा । मृत्यु के समय परमेश्वर का ध्यान और नाम लेने से प्रभु जीव को अपने स्वरूप में समाहित कर लेते हैं उन्होंने बताया कि जन्म, जरा और मृत्यु शरीर के धर्म है, आत्मा के नही । आत्मा अजर अमर है। इसलिए मानव को पशु बुद्धि त्याग कर अपने मन में भगवान की स्थापना करनी चाहिए।
कीर्तन करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त कर सकता है

आचार्य श्री ने कहा कि भगवान सुखदेव ने सातवें दिन राजा परीक्षित को कथा सुनाते हुए बताया कि यह मनुष्य शरीर ज्ञान और भक्ति प्राप्त करने का साधन है। और यह सभी फलों का मूल है । शरीर देव योग से मिला है जो उत्तम नौका के समान है। उन्होंने कहा कि परमात्मा का सुमिरन मन में होना चाहिए। कीर्तन करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त कर सकता है ।
यदि संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ संतोष सबसे बड़ा धन है
आचार्य श्री ने अंत में बताया कि मनुष्य स्वयं को भगवान बनाने के बजाय प्रभु के दास बनने का प्रयास करें क्योंकि भक्ति भाव देखकर जब प्रभु में वात्सल्य जाता है। तो वह सब कुछ छोड़ कर अपने भक्त रूपी संतान के पास पीछे दौड़े चले आते हैं। गृहस्थ जीवन में मनुष्य तनाव में जीता है जबकि संत सद्भाव में जीता है यदि संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ संतोष सबसे बड़ा धन है।

