जब अन्याय और अधर्म बार-बार उभरता है, तब भगवान को स्वयं अवतार लेकर न्याय की स्थापना करनी पड़ती है : रणधीर ओझा




न्यूज़ विज़न। बक्सर
शहर के सिविल लाइंस स्थित श्री साईं उत्सव वाटिका में आयोजित सप्त दिवसीय श्रीमद्भागवत कथा का समापन बुधवार को भक्तिमय वातावरण में संपन्न हुआ। कथा के अंतिम दिन मामाजी के कृपापात्र आचार्य रणधीर ओझा ने शिशुपाल वध से शुरुआत की। जिसमें आचार्य श्री ने बताया कि किस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने धैर्य की सीमा तक अपमान सहा, लेकिन जब शिशुपाल ने १०० बार मर्यादा का उल्लंघन किया, तब श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा हेतु उसका वध किया।









उन्होंने कहा कि “यह प्रसंग हमें सिखाता है कि सहिष्णुता की भी एक सीमा होती है। जब अन्याय और अधर्म बार-बार उभरता है, तब भगवान को स्वयं अवतार लेकर न्याय की स्थापना करनी पड़ती है।” इसके बाद राजसूय यज्ञ का प्रसंग सुनाया गया, जहाँ श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्मराज के रूप में स्थापित करने के लिए मार्ग प्रशस्त किया। यह प्रसंग दर्शाता है कि कैसे धर्म की सत्ता के बिना समाज में संतुलन असंभव है। यज्ञ में श्रीकृष्ण को ‘अग्रपूज्य’ घोषित किया जाना समाज द्वारा धर्म की सर्वोच्चता को मान्यता देने का प्रतीक बना। आचार्य श्री ने बताया कि राजसू यज्ञ – धर्म और सत्ता का संगम है। भगवान श्रीकृष्ण के विविध विवाहों का वर्णन करते हुए आचार्य श्री ने स्पष्ट किया कि ये विवाह केवल सांसारिक नहीं थे, बल्कि प्रत्येक विवाह के पीछे सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक उद्देश्य थे। उन्होंने कहा कि “प्रत्येक विवाह एक संदेश देता है — सेवा, सुरक्षा और सम्मान का। रुक्मिणी हरण हो या सत्यभामा विवाह — हर प्रसंग में श्रीकृष्ण ने धर्म की मर्यादा का पालन किया।”






सुदामा चरित्र का वर्णन करते हुए कथा पंडाल भाव विभोर हो उठा। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता को आचार्य श्री ने भक्ति का सर्वोच्च उदाहरण बताया। उन्होंने कहा कि “सुदामा जैसे भक्त को भगवान ने न केवल अपनाया, बल्कि उनके आत्मसम्मान को बनाए रखते हुए उनकी गरीबी भी हर ली। यह प्रसंग बताता है कि भगवान भक्ति से बंध जाते हैं — उन्हें धन, यश या बल की नहीं, भाव की आवश्यकता होती है।” आचार्य श्री ने आगे बताया कि यदुकुल संहार वैराग्य और ब्रह्मलीनता की अंतिम लीला है। यदुकुल संहार, जहाँ श्रीकृष्ण ने अपने ही कुल के विनाश की लीला रची। इस प्रसंग में उन्होंने बताया कि जब अहंकार और शक्ति का संतुलन खो जाए, तो विनाश निश्चित होता है — चाहे वह भगवान का अपना वंश ही क्यों न हो।
“यह लीला हमें यह सिखाती है कि हर आरंभ का एक अंत है। जब कार्य पूर्ण हो जाता है, तब भगवान स्वयं भी संसार से विदा लेते हैं। यह हमें वैराग्य की ओर प्रेरित करता है।” पूरे आयोजन के दौरान कथा स्थल भक्ति, श्रद्धा और भाव से परिपूर्ण रहा। भक्तगणों ने भजनों, कीर्तन और श्रीकृष्ण लीलाओं के अमृतमय वचनों में डूबकर आत्मिक शांति का अनुभव किया। अंतिम दिन आरती और प्रसाद वितरण के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ । कथा में गुड्डू सिंह, वार्ड 30 की पार्षद संगीता सिंह , पंकज उपाध्याय, विनोद सिंह इत्यादि लोगों की सहभागिता सराहनीय रही ।

