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24 एकादशियों में श्रेष्ठ और अक्षय फल प्रदान करने वाली है निर्जला एकादशी

न्यूज विजन । बक्सर
24 एकादशियों में श्रेष्ठ एवं अक्षय फल प्रदान करने वाली ज्येष्ठ माह के शुक्लपक्ष की निर्जला एकादशी के मौके पर बुधवार को अहले सुबह से ही शहर के विभिन्न गंगा घाटों पर गंगा स्नान को हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचे। जहां स्नान के पश्चात महिलाएं एकादशी व्रत की कथा सुना और चावल, दाल, आटा, गुड के अलावा पंखा, छाता, बिस्तर, वस्त्र, खरबूज, तरबूज, आम आदि फल भी दान किया गया।

एकादशी व्रत की कथा सुनती महिलाएं
रामरेखा घाट पर कथा सुना रहे त्रिलोकी नाथ त्रिपाठी ने बताया की सनातन धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है। प्रत्येक माह में दो एकादशी व्रत रखे जाते हैं। 24 एकादशियों में श्रेष्ठ और अक्षय फल प्रदान करने वाली ज्येष्ठ माह के शुक्लपक्ष की निर्जला या भीमसेनी एकादशी है। पद्मपुराण के अनुसार इस एकादशी का निर्जल व्रत रखते हुए परमेश्वर भगवान विष्णु की भक्तिभाव से पूजा-आराधना करने से प्राणी समस्त पापों से मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है।
वही उन्होंने कथा के दौरान उन्होंने कहा की धर्मग्रंथों की कथा के अनुसार देवर्षि नारद की विष्णु भक्ति देखकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। नारद जी ने अपने पिता व सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी से कहा कि हे परमपिता! मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मैं जगत के पालनकर्ता श्रीविष्णु भगवान के चरणकमलों में स्थान पा संकू। पुत्र नारद का नारायण प्रेम देखकर ब्रह्मा जी ने श्रीविष्णु की प्रिय निर्जला एकादशी व्रत करने का सुझाव दिया। नारद जी ने प्रसन्नचित्त होकर पूर्ण निष्ठा से एक हज़ार वर्ष तक निर्जल रहकर यह कठोर व्रत किया। हज़ार वर्ष तक निर्जल व्रत करने पर उन्हें चारों तरफ नारायण ही नारायण दिखाई देने लगे। परमेश्वर श्री नारायण की इस माया से वे भ्रमित हो गए, उन्हें लगा कि कहीं यही तो विष्णु लोक नहीं। तभी उनको भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन हुए। मुनि नारद की भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णुजी ने उन्हें अपनी निश्छल भक्ति का वरदान देते हुए अपने श्रेष्ठ भक्तों में स्थान दिया और तभी से निर्जल व्रत की शुरुआत हुई।
वहीं उन्होंने कथा के दौरान द्वापर युग में महर्षि व्यासजी ने पांडवों को निर्जला एकादशी के महत्व को समझाते हुए उनको यह व्रत करने की सलाह दी। जब वेदव्यास जी ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाली एकादशी व्रत का संकल्प कराया तो कुंती पुत्र भीम ने पूछा-‘हे देव! मेरे उदर में तो वृक नामक अग्नि है,उसे शांत रखने के लिए मुझे दिन में कई बार और बहुत अधिक भोजन करना पड़ता है। तो क्या मैं अपनी इस भूख के कारण पवित्र एकादशी व्रत से वंचित रह जाऊँगा?”। तब व्यास जी ने कहा-”हे कुन्तीनन्दन! धर्म की यही विशेषता है तुम केवल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी का व्रत करो। मात्र इसी के करने से तुम्हें वर्ष की समस्त एकादशियों का फल भी प्राप्त होगा और तुम इस लोक में सुख-यश प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करोगे”। तब से इसे पांडव एकादशी नाम दिया गया है। इस दिन जो व्यक्ति स्वयं निर्जल रहकर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” का जप करता है वह जन्म जन्मांतर के पापों से मुक्त होकर श्री हरि के धाम जाता है।

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